Thursday, February 9, 2012

घनघोर अन्धकार में 
इस भयावह रात में 
अनेकोनेक विपदा के बीच 
भूमि को अपने रक्त से सींच 
तुम अकेली चली जाती हो चली जाती हो 

कभी घर में तो कभी बाहर 
कभी द्वार के भीतर तो कभी सरे बाज़ार 
माँ पत्नी सखी बहन प्रियसी हर रूप में 
हर देश में हर वेश में 
छली जाती हो छली जाती हो 

व्यक्त ना करती दर्द मन का 
घुट घुट कर सहती 
ख़ामोशी से रोती
सिसक को हंसी में छुपा 
सब कुछ झेलकर भी 
ना बताती भार अपने मन का

मित्र माना जब मुझे 
तो क्या समझा बस
सुख का साथी मुझे 
आपदा में अपनी भागी न बना
बना दिया तुच्छ मुझे 

मेरे हर मुश्किल समय में 
जब दिया तुमने साथ हर घडी 
अब जब ज़रूरत है तुम्हे साथ की 
तो अनजाना समझ मुझे 
अकेली इस बियाबान में चली 

नहीं कोई आशंका  या अंदेशा तुम पर 
है स्वयम से भी अधिक विश्वास तुमपर 
हो चाहे कैसी भी ये विकट विपदा
तुम पार पाओगी  सदा 

मैं नहीं चाहता तुमको कमज़ोर बनाना 
चाहता बस इतना हू के जब भी 
लडखडाए कदम और सामने हो तमस खड़ा 
सोचे बिना एक पल भी थम लेना हाथ मेरा 

ना डर ना रुक हो चाहे समुद्र कितना भी अथाह 
हो चाहे किता भी तेज इन लहरों का प्रवाह 
बना रहूँगा हमेशा तेरा संगी तेरा साथी तेरा सहारा 
पार पाकर हर कठिनाई से मिलेगा तुझे तेरा किनारा 
-दुसरा मलंग   

2 comments:

  1. hey this is really profound....reminded me of harvanshrai bachhan :)

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    1. thnx madhusha this is the best compliment i ever got
      thnx a ton

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