Monday, February 27, 2012

नारी - एक भेंट इश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति को

आज ही मैं इस दुनिया में आई , अभी आँखें भी नहीं खुली थी  मैं पहचानने की कोशिस कर रही थी की मैं कौन हू ?
जवाब सोचने से पहले ही किसी की आवाज़ कानो में पड़ी की 'लड़की हुई है '
और एक ही पल में मैं अपने आप को पहचान गयी की मैं औरत हू .
जवाब मिलते ही मेरा मन विचारों की उथल पुथल से और भी विचलित हो गया .
मन में कई तरह के सवाल उठने लगे , कई तरह की शंकाए घर करने लगी
वो सभी रिश्ते दिमाग में आने लगे जो निभाने होंगे और वो रिश्ते भी जो शायद ता उम्र ढोने भी होंगे, ये भी सवाल उठा की एक औरत के रूप में  मुझे पहचान मिली है या मेरा वजूद इस पुरुष प्रधान समाज में कही खो गया है .
मस्तिषक में एक निर्बल सदा दबी कुचली हुई मोम की गुडिया सादृश्य जानवर की छवि दिखाई देने लगी जिसे नारी कहा जाता है
जिसे कभी कभी बाहर  की दुनिया में बराबर मान भी लिया जाये पर पुरुष का अहम उसे कभी अपने बराबर नहीं मान सकता
फिर चाहे वो मर्यादा पुरुषोत्तम राम हो या ऋषि गौतम या फिर आज के ज़माने के नौजवान
जड़ें खोदो तो सब के भीतर एक गर्वीला पुरुष अब भी उस नारी को बराबर का दर्ज़ा देने से कतराता है .

फिर मैंने सोचा कि मैं ये सब क्यों सोच रही हू , अगर मैं भी इसी तरह सोचने लगी तो मुझमे और उन पूर्वाग्रहों से ग्रसित दूसरी औरतों में क्या अंतर रह जाएगा जो जीवन भर यही सोचती है और सबला से अबला हो जाती है
अन्नपूर्णा से आश्रित हो जाती है और किसी न किसी हद तक उस गुटन भरे जीवन के लिए खुद जिम्मेदार होती है .
हम सबको अपना जीवन सवारने का अधिकार है हर कोई अपना भाग्य खुद लिखता है हाथों कि लकीरों का सहारा निकम्मे और नाकारा लोगो का हथियार है
मैं अपनी तकदीर खुद लिखूंगी और अपनी राह खुद बनाउंगी तब भी यही आवाज़ सुनाने को मिलेगी
कि लड़की हुई है पर तब उस आवाज़ में गर्व होगा

-दुसरा मलंग

Monday, February 20, 2012

शिव "

शिव "

शिव शंकर ना जाने कहाँ खो गए 

पर बाराती तो आज भी नज़र आ जाते है शिव के
 
हर मोड़ पर हर गली में हर छोर पर



आज के नौजवान भी देखो हलाहल पीकर नीलकंठ बने न बने

पर दम के धुंए में उड़कर खुद को शिव का सच्चा भक्त बनाना नहीं भूले


आज होते शिव तो तांडव करता देखते इस संसार को 

शायद तीसरे नेत्र से फिर भस्म ही कर डालते अपने आप को


आज की पार्वती में कहाँ है इतना प्रेम

जो दुर्गम कैलास में रहने वाले से बांधे मन


कहाँ है वो गणेश जो करे शिव पार्वती की परिक्रमा

आज का गणेश तो बस रिद्धि सिद्धि के बीच में ही है रमा


भोले शिव जैसा कौन रहा है अब भोला 

इस भोलेपन के पीछे छुपा है बस झूठ फरेब का घिनोना चोला

-दुसरा मलंग

Thursday, February 9, 2012

घनघोर अन्धकार में 
इस भयावह रात में 
अनेकोनेक विपदा के बीच 
भूमि को अपने रक्त से सींच 
तुम अकेली चली जाती हो चली जाती हो 

कभी घर में तो कभी बाहर 
कभी द्वार के भीतर तो कभी सरे बाज़ार 
माँ पत्नी सखी बहन प्रियसी हर रूप में 
हर देश में हर वेश में 
छली जाती हो छली जाती हो 

व्यक्त ना करती दर्द मन का 
घुट घुट कर सहती 
ख़ामोशी से रोती
सिसक को हंसी में छुपा 
सब कुछ झेलकर भी 
ना बताती भार अपने मन का

मित्र माना जब मुझे 
तो क्या समझा बस
सुख का साथी मुझे 
आपदा में अपनी भागी न बना
बना दिया तुच्छ मुझे 

मेरे हर मुश्किल समय में 
जब दिया तुमने साथ हर घडी 
अब जब ज़रूरत है तुम्हे साथ की 
तो अनजाना समझ मुझे 
अकेली इस बियाबान में चली 

नहीं कोई आशंका  या अंदेशा तुम पर 
है स्वयम से भी अधिक विश्वास तुमपर 
हो चाहे कैसी भी ये विकट विपदा
तुम पार पाओगी  सदा 

मैं नहीं चाहता तुमको कमज़ोर बनाना 
चाहता बस इतना हू के जब भी 
लडखडाए कदम और सामने हो तमस खड़ा 
सोचे बिना एक पल भी थम लेना हाथ मेरा 

ना डर ना रुक हो चाहे समुद्र कितना भी अथाह 
हो चाहे किता भी तेज इन लहरों का प्रवाह 
बना रहूँगा हमेशा तेरा संगी तेरा साथी तेरा सहारा 
पार पाकर हर कठिनाई से मिलेगा तुझे तेरा किनारा 
-दुसरा मलंग   

Monday, February 6, 2012

मेरी कहानी


मेरी कहानी 


एक शाम बैठा था हमेशा की तरह  तन्हा अकेला 
और याद कर रहा था वो हसीं पल
जो बिताए थे हमने कभी साथ साथ 




  थे ख्वाब या थी वो हकीकत 
जो भी था उस से खूबसूरत न कुछ जिंदगी में है 
और ना ही शायद जिंदगी के बाद होगा 
कोई जाने या न जाने कोई माने या न माने 
पर मैंने जिया है उन लम्हों को


दुनिया तो भरोसा ही नहीं करेगी 
और अच्छा ही है  के ना करे वो भरोसा मुझ पर 
इस तरह उन पलों पर बस मेरा हक होगा 

क्या हुआ जो हम मिल ना सके 
पर इस बात का गुमाँ है की मिले थे हम भी कभी 
और ऐसे मिले थे के शायद ही कोई  मिला होगा 

वो तेरे पीछे पीछे चलना 
तो कभी तेरा हाथ थाम बादलों के पार दौड लगाना 
और फिर थक कर एक दूसरे का सहारा ले बैठ जाना 
हंफ्हते हुए एक दूसरे को देख कर खिलखिलाना 



वो पहाड़ी के मंदिर पे 
अपने जूते हाथ में ले चलना 
व ठेले पे तेरा गोलगप्पे खाना 
और मुझे देख मुस्कुराना 

सर्दियों में गर्म चाय की चुस्कियों के बीच 
तिब्बत मार्केट से एक जैसी स्वेटर लेना 
और पूरी सर्दियाँ उसी स्वेटर में निकाल देना 


क्या कोई समझ पाएगा उस अहसास को 
वो रात के तीन बजे तेरा फोन करना 
और  किसी मासूम बच्चे की तरह
 फोन पर लोरी सुनाने की जिद्द करना 


और सबसे हसीं पल 
वो तेरा  पाव भाजी खाना और फिर भूल जाना 
मुझसे मासूमियत से पूछना क्या मैं कुछ खाया था  

वो दुकानों पे शादी के जोड़े देखना 
और तुझसे डाँट खाना 
 कभी सड़क किनारे पान खाना 
और पिचकारी मार मुस्कुराना 



सबसे खूबसूरत  अकेले  तन्हाई में 
एक तक एक दूसरे की आँखों में देखते रहना 
और तेरा चोरी से मेरे गालों को चूमकर
शरमाकर भाग जाना 

शायद उस खुदा को भी जलन थी मुझसे 
तभी तो बस कुछ पल दिए
तेरे साथ बिताने को 
पर फिर भी अहसान मानता हू ऐ खुदा तेरा
  उन पलो के लिए  



मैं नहीं जानता की वो दोस्ती थी या प्यार 
पर जो भी था उस से खूबसूरत कुछ भी नहीं 
इस दुनिया में 
सिवाय तेरे 

-दुसरा मलंग