बीते कल के सिरहाने पर
सपने आने वाले कल के बुनता हू
पुष्पदल न मिले गर पथ पर
तो काँटों को झोली में भरता हू
भय नहीं आंधी तूफ़ान का
तेज बवंडर
से मन की अग्नि को और हवा देता हू
पाषाणों के भीड़ में रहकर हर पल अपने मन की कर
इंसान होने का सुबूत देता हू
ज़रूरत नहीं किसी नीड़ की
ना झूठी किसी भीड़ की
अकेला अपने पंख फैला
आसमान नापा करता हू
सीधे पथ को छोड़ चूका पीछे
उबड़खाबड़ राहों पर
गीत विजय के गा गाकर
पर्वत लांघा करता हू
ना चाह नाम पाने की
ना डर सरे आम बदनाम होने का
खोया उसे छोड़ पीछे
पाए को सब में लुटा देता हू
मानव समझो या समझो दानव
गिनो सुरों में या असुरों में
है इतना सत्य का सामर्थ्य मुझमे
के झूठे ईश्वर को आँखे दिखा सकता हू
-दुसरा मलंग
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